ताजमहल या तेजो महालय - 2




मैंने “ताजमहल या तेजो महालय” के संदर्भ में अपनी पहली पोस्ट लिखते वक्त यह गलती कर दी की मैंने आपको यह नही बताया की न मैं हिंदू धर्म का समर्थक हूँ और न ही मुस्लिम धर्म का, और इन पोस्ट का किसी भी धर्म से कोई सम्बन्ध नही है| कुछ लोगों का कहना है की इस पोस्ट को पढ़ने से लगता है जैसे यह कहने की कोशिश की जा रही हो की ताजमहल हिंदुओं की सम्पति है और उसे उनके नाम पे ही होनी चाहिए परन्तु ऐसी किसी बात पे मैंने जोर नही दी है मेरे नजरों में वह राष्ट्र की सम्पति थी, है और हमेशा रहेगी भी|



वैसे मैंने “ताजमहल या तेजो महालय” की शुरुआत जिस कारन की थी मैं उसे अब आगे बढ़ाना चाहूँगा, इस तरह के व्यर्थ बातों के लिए मेरे पास बचपन से कोई समय नही है, और मुझे लगता है जब मैं इस “ताजमहल या तेजो महालय” के कड़ी को समाप्त कर दूँगा तब सभी टिप्पणीकर्ता प्रश्नाधरियों को उनके जवाब मिल जायेंगे इस कारन मैंने टिप्पणी भी करना उचित न समझा, और करता भी क्या “आपके जवाब आपको मेरे अगले पोस्ट में मिल जायेंगे”|



आइये अब इस कहानी की शुरुआत करते हैं प्रो.पी. एन. ओक. की कहानी से| किस तरह ये ताजमहल के फेर में पड़े और एक अलग ही कहानी बना डाली, वैसे इस सक्स को इस कहानी की प्रेरणा इतिहास से ही मिली| इतिहास में अक्सर हमें समय का ठीक तरह से ज्ञान नही चलता और हम उसके आगे – पीछे के निर्धारित तिथि से उसकी भी अनुमानित तिथि निश्चित कर लेते हैं और इसी बात का फायदा उठाया प्रो.पी. एन. ओक. ने, अक्सर हमें इतिहास की किताबों में पढ़ने को मिल जाता है की “ऐसा कहा जा सकता है” और इसी कथन का फायदा उठा कर इन्होने भी कह डाला “ऐसा भी कहा जा सकता है”|



प्रो.पी. एन. ओक. का जन्म २ मार्च १९१७ को इन्दोर में एक मराठी परिवार में हुआ था, उनके पिता उनसे हमेशा संस्कृत में बात करते और उनकी माता अंग्रेजी में और वे जहाँ रहते वहां हिंदी बोली जाती इस कारन उन्हें बचपन से ही ये चारों भाषाओँ का अच्छा ज्ञान था| इन्होने बी. ए. की डिग्री आगरा विश्वविद्यालय से लेने के बाद बॉम्बे विश्वविद्यालय से एम. ए. और उसके बाद एल. एल. बी. भी की| उसके बाद वे २४ वर्ष की अवस्था में आर्मी में चले गए| भारत के आजादी के बाद वे नेता जी शुभाषचंद्र बोश के सह कार्यकर्ता भी रहे| १९४७ से १९७४ तक उन्होंने हिंदुस्तान टाइम्स और स्टेटमेंट्स के साथ पत्रकारिता की| वे भारत सरकार के सुचना मंत्रालय में भी रहे| उन्हें ऐतिहासिक स्थलों  पे घूमने का शौक था और वे अक्सर ऐसा किया करते थे| उन्हें १४ जून १९६४ में जब पता चला की भारतीये इतिहास की पुनर्रचना हो रही है तो उन्हें ऐसा लगने लगा जैसे इतिहास गलत दिशा में जा रही है और उन्होंने खुद कुछ खोज करने की सोची और उस वक्त उन्होंने अपना विषय बनाया ताजमहल क्यों की मुगलों में महल शब्द का प्रयोग नही होता था और इस कारन उन्हें लगा जैसे इसके इतिहास में कहीं कोई गडबड है|



वैसे जब उन्होंने इसकी खोज - बिन की तो उनके हाथ ऐसा कुछ तो न लग सका जो वे कह पाते की यह ताजमहल शाह जहाँ ने नही बनाया और वे सबूत के लिए कुछ पेश कर पाते परन्तु उन्हें इतिहास के पन्नों से कुछ ऐसी जानकारियां भी मिली जिससे वे अपने समर्थन में कुछ कह सकते थे और वैसा ही उन्होंने किया भी|



परन्तु जब उन्होंने अपनी पुस्तक लिखी "TAJ MAHAL - THE TRUE STORY" इस पुस्तक में उन्होंने अपने खोज और उससे बंधी अपनी भावनाओं का ऐसा वर्णन किया है जिससे ऐसा जरुर लगता है की जैसे हिंदू ने अपनी लुटी हुयी संपत्ति को पाने की आबाज लगायी हो और वो भी दूसरे धर्म से| वैसे हमारे देश में अपनी सरकार को बस दो ही चीजों की चिंता होती है पहली – मिले हुए पांच वर्ष तक कैसे टिका जाये और दूसरी – आगे के आने वाले पांच वर्षों के लिए वोट का इंतजाम कैसे किया जाये| इस कारन कोट का फैसला तो प्रो.ओक. के हक में न हो सका परन्तु आज के मिले इतिहास के श्रोतों से सिर्फ इस कारन झुठला सकते हैं क्यों की जैसा जो कुछ भी कहा वह एक अनुमान मात्र था|



उसने क्या कहा, उसके परिमाण क्या हैं और क्या नही, इसकी चर्चा हम इस “ताजमहल या तेजो महालय” कड़ी के अगले पोस्ट में करेंगे| माफ कीजियेगा मैं आज भी इसे समाप्त नही कर सका|



वैसे इक बात बतादूं यह हिंदू का है या मुस्लमान का यह जान कर एक इंसान को १% की भी खुशी नही हो सकती परन्तु यह जानकर की यह खूबसूरती की मिशाल अपने राष्ट्र की है सबको खुशी होती है चाहे वो इंसान हो या ....|


Read Users' Comments (0)

0 Response to "ताजमहल या तेजो महालय - 2"