सच
सच क्या है? ये तो सभी जानते हैं पर क्या ये जानने की कोशिश करते हैं, क्यूँ है?
वैसे क्यूँ करेंगे, सच्चाई जानने के बाद भी जो उससे रु ब रु नही होना चाहते उसे अपना नही सकते तो फिर सच की सच्चाई से क्या वास्ता रह जाता है हमारा|
क्या कभी अजीब महसूस नही होता घुटन की तरह जब कभी हम भी वोही सब करते हैं जिसे दूसरों को करने से रोकते हैं, क्या उस वक़्त हमे कुछ भी याद नही होता या सब कुछ जान कर ऐसा करते हैं, उस वक़्त अपना फर्ज कहाँ रह जाता जब की दूसरों को तो हम उनके फर्ज खूब याद दिलाते रहते हैं और अपने ईमान और फर्ज की झूठी शान बनाते हैं|
हाँ हमें शायद गलतियाँ करते वक़्त कुछ भी याद नही रहता, लेकिन ये ध्यान होता है की कहीं हमें ये सब करते कोई देख न ले, मेरी बातें कहीं कोई सुन न ले, और अगर गलती से पकडे भी गये तो क्या फर्क पड़ता है .....
" भाई मनुष्य को गलतियों के बारे में थोड़े न ये पता होता है की यह गलती है "
" और मनुष्य कोई थोड़े न बुरा होता है बुरा तो उसका वक़्त होता है "
और जब ये सब तर्क बेकार हो जाते तो फिर :-
" क्या कर सकते हैं हम तो मनुष्य हैं न और गलतियाँ तो मनुष्यों से ही होती है "
फिर माफ़ी तो हम मनुष्यों के लिए ही है, और फिर इस बार माफ़ी नही मिलेगी तो फिर मैं वास्तव में अपने सजा हा हक़दार कैसे बन सकूंगा ...................
और माफ़ी देने के लिए बहुत - बहुत धन्यवाद, विस्वास रखो अगली बार मुझे गुनेहगार देखने के लिए आप नही रहोगे .....................
वैसे क्यूँ करेंगे, सच्चाई जानने के बाद भी जो उससे रु ब रु नही होना चाहते उसे अपना नही सकते तो फिर सच की सच्चाई से क्या वास्ता रह जाता है हमारा|
क्या कभी अजीब महसूस नही होता घुटन की तरह जब कभी हम भी वोही सब करते हैं जिसे दूसरों को करने से रोकते हैं, क्या उस वक़्त हमे कुछ भी याद नही होता या सब कुछ जान कर ऐसा करते हैं, उस वक़्त अपना फर्ज कहाँ रह जाता जब की दूसरों को तो हम उनके फर्ज खूब याद दिलाते रहते हैं और अपने ईमान और फर्ज की झूठी शान बनाते हैं|
हाँ हमें शायद गलतियाँ करते वक़्त कुछ भी याद नही रहता, लेकिन ये ध्यान होता है की कहीं हमें ये सब करते कोई देख न ले, मेरी बातें कहीं कोई सुन न ले, और अगर गलती से पकडे भी गये तो क्या फर्क पड़ता है .....
" भाई मनुष्य को गलतियों के बारे में थोड़े न ये पता होता है की यह गलती है "
" और मनुष्य कोई थोड़े न बुरा होता है बुरा तो उसका वक़्त होता है "
और जब ये सब तर्क बेकार हो जाते तो फिर :-
" क्या कर सकते हैं हम तो मनुष्य हैं न और गलतियाँ तो मनुष्यों से ही होती है "
फिर माफ़ी तो हम मनुष्यों के लिए ही है, और फिर इस बार माफ़ी नही मिलेगी तो फिर मैं वास्तव में अपने सजा हा हक़दार कैसे बन सकूंगा ...................
और माफ़ी देने के लिए बहुत - बहुत धन्यवाद, विस्वास रखो अगली बार मुझे गुनेहगार देखने के लिए आप नही रहोगे .....................
क्या ये सच है भाई अगली बार हम नहीं रहेंगे? अरे तो कमेन्ट कहाँ से आयेंगे । मगर हम दुया करते हैं कि आप 100 साल से अधिक जीओ। शुभकामनायें
बहुत-बहुत आभार आपका , बेहद उम्दा जानकारीं प्रदान की आपने ।
निर्मला जी,
ये सत्य तो है परन्तु सिर्फ उनका जो अपनी गलतियों को छुपा कर खुद को निर्दोष बताने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं ..........................
मित्र लगता है आप किसी गहन उपापोह में हैं ..कई बार परिवेश मनुष्य से बड़ा हो जाता है जो उससे गलतियाँ करवाता है ..कई बार हमारा अहम् भी इसके लिए जिम्मेवार होता है..हम खुद को अधिक कर के आंकते हैं..इच्छा पूरी न होने पर परिवेश को जिम्मेदार ठहराते हैं और खुद को सही ..उस वक्त कोई हमरे दोष बताता है हम उसी पर खीज उठते हैं .. बिना कारण जाने प्रतिक्रिया वादी हो उठते है ...जाहिर बात है जिंदगी ऐसे भी चलती ही है, पर अगर खुद और अपने परिवार से अलग आप उस समाज के लिए कुछ करना चाहते हैं जिसने आपको यह भाषा और चेतना दी है..निराशा जनक चीजों से ऊपर उठाना पहली शर्त होती है..और यह तब ही संभव है जब हम भाव रहित होकर अपना मुल्यांकन कर सकें.
बहुत बढिया लिखा है .. शुभकमामनाएं !!
अज्ञात जी,
बहुत सही कहा आपने और मैंने भी यही लिखा है " मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए अपनी गलतियों का जिम्मेदार दूसरों को बनाता है और खुद को सही ठहरता है "|
परन्तु आपने जो लिखा है " कई बार परिवेश मनुष्य से बड़ा हो जाता है जो उससे गलतियाँ करवाता है " इसे मैं सही नहीं मानता, मेरे साथ भी ऐसा बहुतों बार हो चूका है और मैंने भी बहुत सी गलतियाँ की है अभी भी करता ही रहता हूँ परन्तु सच्चाई ये है की जब से मैंने अपनी गलती मानना शुरू किया है तब से गलतियाँ होनी कुछ कम हो गयी है|