एक सच ये भी .....
हम किसी भी वस्तु विशेष को कब जानना चाहते हैं? कब किसी कि तरफ हमारा आकर्षण बढ़ता है और हम उसके तरफ खींचे चले जाते है?
ये बहुत ही साधारण से सवाल हैं परन्तु क्या इनके जबाब भी इतने ही साधारण हैं, वैसे तो हाँ कह कर सीधे – सीधे कहा जा सकता है कि जब कोई किसी वस्तु कि विशेषताओं से हमे अवगत करता है तो हम आकर्षित होते हैं परन्तु क्या यह पूर्ण सत्य है? क्या हमेशा सिर्फ ऐसा ही होता रहा है?
क्या कभी ऐसा नहीं होता कि हमें बुराइयों से भरी चीजों को जानने कि चाहत हुयी हो? जिसकी सभी आलोचना करते हो उससे रू-व्-रु होकर उसे परखने कि इच्छा नही होती हमारी?
और जब इक ही वस्तु कि कोई ढेर सारी गुणों को बताए और वहीँ कोई दूसरा उसके दोषों को भी आपके सामने रखे तो आप क्या करेंगे? उस वस्तु को जानने कि उसे परखने कि इच्छा नही होगी आपकी?
पिछले २-३ दिनों से हमरे ब्लॉग जगत में “माई नेम इज खान” कि ही बातें हो रही हैं कोई इसे अच्छी फिल्म का दर्जा देना चाहता है तो कोई इसके विरोध में अस्त्र – शस्त्र लिए खड़ा है, परन्तु मुझे ये समझ नहीं आ रहा आखिर ये सब क्यूँ? क्या आज एक फिल्म हमारे समाज के लिए इतना महत्वपूर्ण हो गया है कि सब उसी को लेकर अपनी खाना-पूर्ति करने में लगे हैं या फिर वो इसी खाना-पूर्ति के लिए यहाँ हैं और इन्हीं सब के लिए ही हैं तो फिर उन्हें गलत कह कर और ये बता कर कि ये फिल्म निरर्थक है, इसका कोई वजूद नही वो भी तो उन्ही का साथ दे रहे हैं, क्या उन्हें ये ज्ञात नही कि जो फिल्म आलोचनाओं और विवादों से भरी होती है उसके दर्शक उतने ही ज्यादा होते हैं, फिर वो ऐसा करने के बावजूद क्यूँ किसी और पे.... क्यूँ ....?
मैं किसी के भी पछ में नही हूँ न फिल्मों को बढ़ा चढा कर देखना मेरी फिदरत है और न ही किसी कि भी महत्वपूर्णता को कम कर देखने का आदि हूँ| मैं तो सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि हमें किसी के भी बारे में कुछ भी कहने से पहले खुद को टटोल लेना चाहिए और इस बात का तो महत्वपूर्ण रूप से ध्यान रखना चाहिए कि हम जिसे गलत कह रहे हैं कहीं हमारे रास्तों कि मंजिल भी वही न हो|
ये बहुत ही साधारण से सवाल हैं परन्तु क्या इनके जबाब भी इतने ही साधारण हैं, वैसे तो हाँ कह कर सीधे – सीधे कहा जा सकता है कि जब कोई किसी वस्तु कि विशेषताओं से हमे अवगत करता है तो हम आकर्षित होते हैं परन्तु क्या यह पूर्ण सत्य है? क्या हमेशा सिर्फ ऐसा ही होता रहा है?
क्या कभी ऐसा नहीं होता कि हमें बुराइयों से भरी चीजों को जानने कि चाहत हुयी हो? जिसकी सभी आलोचना करते हो उससे रू-व्-रु होकर उसे परखने कि इच्छा नही होती हमारी?
और जब इक ही वस्तु कि कोई ढेर सारी गुणों को बताए और वहीँ कोई दूसरा उसके दोषों को भी आपके सामने रखे तो आप क्या करेंगे? उस वस्तु को जानने कि उसे परखने कि इच्छा नही होगी आपकी?
पिछले २-३ दिनों से हमरे ब्लॉग जगत में “माई नेम इज खान” कि ही बातें हो रही हैं कोई इसे अच्छी फिल्म का दर्जा देना चाहता है तो कोई इसके विरोध में अस्त्र – शस्त्र लिए खड़ा है, परन्तु मुझे ये समझ नहीं आ रहा आखिर ये सब क्यूँ? क्या आज एक फिल्म हमारे समाज के लिए इतना महत्वपूर्ण हो गया है कि सब उसी को लेकर अपनी खाना-पूर्ति करने में लगे हैं या फिर वो इसी खाना-पूर्ति के लिए यहाँ हैं और इन्हीं सब के लिए ही हैं तो फिर उन्हें गलत कह कर और ये बता कर कि ये फिल्म निरर्थक है, इसका कोई वजूद नही वो भी तो उन्ही का साथ दे रहे हैं, क्या उन्हें ये ज्ञात नही कि जो फिल्म आलोचनाओं और विवादों से भरी होती है उसके दर्शक उतने ही ज्यादा होते हैं, फिर वो ऐसा करने के बावजूद क्यूँ किसी और पे.... क्यूँ ....?
मैं किसी के भी पछ में नही हूँ न फिल्मों को बढ़ा चढा कर देखना मेरी फिदरत है और न ही किसी कि भी महत्वपूर्णता को कम कर देखने का आदि हूँ| मैं तो सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि हमें किसी के भी बारे में कुछ भी कहने से पहले खुद को टटोल लेना चाहिए और इस बात का तो महत्वपूर्ण रूप से ध्यान रखना चाहिए कि हम जिसे गलत कह रहे हैं कहीं हमारे रास्तों कि मंजिल भी वही न हो|
सबको अपनी बात कहने का अधिकार है. आप काहे परेशान हो रहे हो भाई? आप अपना सार्थक लेखन जारी रखें.
आदरणीय समीर जी,
नहीं हम परेशान नही हो रहे, हम तो बस वोही कहने कि कोशिश कर रहे हैं जो कि एक मानव होने के दायित्व से उसके विकाश के लिए हमें जो समझ आता है, और जो गलतियाँ हो उसे आप सभी सुलझाएंगे तो उसके लिए हम सदैव आभारी रहेंगे ही .....
धन्यवाद आपका|